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कुछ पल
इस दुनिया के शोर सेकुछ पल अपने लिए चुरा रही हूं… मैं.. हाँ मैं कुछ पलअकेले बीता रही हूं… दुनिया के आडंबरो से भाग केकुछ पल सादगी तलाश रही हूं… नहीं… मुझे अकेला महसूस नहीं हो रहामैं तो केवल कुछ पल सुकून से जीना चाह रही हूं… © सचि मिश्रा
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अनजान !
अपने अंतरमन से बात करकेखुश होने वाली पागल सी इंसान हु.. आसमान में चमकते सूर्य की छोटी सी मुस्कान हूँ स्कूल में पढ़ने वाली स्वाभिमान से रहने वाली एक छोटी सी पहचान हूँ तुम मुझसे अनजान हो और मैं तुमसे अनजान हूँ मेरी चुप्पी में मेरी छोटी सी पहचान हैइस पहचान को पहचान रहने दोमैं…
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क्या तेरे मां बाप ने इसी दिन के लिए तुझे पाला था?
क्या तेरे मां बाप ने इसी दिन के लिए तुझे पाला था?जब हुआ था जन्म तेरा तो सब ने ताना मारा था,फिर तेरे पिता ने तुझ पर एक आंच भी ना आने दी..अपने पिता का सोच कर ,क्या तुझको लज्जा न आई,कुछ कर्तव्य थे तेरे भी उसे छल्ली-छल्ली कर आई…संसार के दुख को झेल कर,…
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कुछ बात…
कुछ बात तो ऐसे ही फिसल जाती हैजुबान के द्वारा शब्द बनकर निकल जाती है…कुछ बात मन में ही रह जाती है…तो कुछ आंखों के इशारों में कहीं जाती है… संभवतः आपके द्वारा मै इन चार पंक्तियों में ढुंढी जाती हुंकिंतु मै खुद की ही तलाश में कहीं गुम हो जाती हुं…. ©सचि मिश्रा
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क्यों करू मैं अपने शून्य पर शर्म?
क्यों करू मैं अपने शून्य पर शर्म? जब अनगिनत की शुरुआत ही शून्य से है… ये तो केवल एक पड़ाव था,सफर तो अभी बहुत है… शून्य से शुरुआत की तो क्या हुआ… हम अनन्त के मुसाफिर है… परिश्रम मेरा ठिकाना है गगन के उसपार तक जाना है…. कभी तो वह दिन भी आएगा मंज़िल तक…
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जिंदगी !
कैसी है ये ज़िंदगी?कभी मीठी तो..कभी तीखी सी..कभी मौसम बदलते हैं कभी लोग भी…. कितना मुश्किल सफ़र है न?इस ज़िंदगी काचलते भी जाना है मुस्कुराते भी जाना हैअपना सारा दुख भी छुपाना …ये सरल नहीं …मन में कुछ और रखनाचेहरे पर कुछ और दिखाना…. सच मे यही ज़िंदगी है? यहां सब ऐसे ही होता है,ये…
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कैसे निकले लड़की घर से बाहर…?
कैसे निकले लड़की घर से बाहर,हर तरफ दरिंदे है छाये,कभी निर्भया, कभी अंकिता, तो कभी मासूम बच्ची को तड़पाए।।जिसे पता नहीं जिस्म काउसे क्यो तुम तड़पाते हो,ऐसा करने में तुमक्यों खुद में मर नही जाते हो।।अंधेरी काली सड़कों पर चलने से,आज भी मन घबराता है,“कुछ हो न जाए कुछ खो न जाए”इस बात से मन…
