
कैसी है ये ज़िंदगी?
कभी मीठी तो..
कभी तीखी सी..
कभी मौसम बदलते हैं
कभी लोग भी….
कितना मुश्किल सफ़र है न?
इस ज़िंदगी का
चलते भी जाना है
मुस्कुराते भी जाना है
अपना सारा दुख भी छुपाना …
ये सरल नहीं …
मन में कुछ और रखना
चेहरे पर कुछ और दिखाना….
सच मे यही ज़िंदगी है?
यहां सब ऐसे ही होता है,
ये झूठ का मुखौटा ओढ़े मेरा मन
हर रोज़, हर क्षण रोता है….
मैं खुद से धीरे-धीरे,
कही दूर जा रही हूं?
शायद मैं खुद को छुपा रही,
आँखों में झूठ की पट्टी बांध
खुद से ही आंखें चुरा रही,
मैं बस हारती ही जा रही….
मैं बस हारती ही जा रही….
©सचि मिश्रा